असुरक्षा का बोध

असुरक्षा का बोध
व्यंग्य
मित्रों विषय बड़ा अटपटा सा लग रहा होगा, सच में कुछ अलग ही होता है असुरक्षा का बोध. यह एक ऐसी बला है जिसका समाज में व्यापक प्रभाव पड़ता है, समाज के हर क्षेत्र में यह विघ्नसंतोषी महाशय आपको अपनी सहजता और कर्तव्यशीलता से विचलित करने के कुप्रयासों में सक्रीयता से संलग्न मिले अवश्य ही  होंगे. हाँ - इनको जरा पहचान पाना मुश्किल बन  पड़ता है, इनके  कपटी और छद्म बनावटी व्यवहार कि वजह से . हजारों धूर्त आवरणों  के कवच धारण किये रहते हैं यह असुरक्षा के बोध से पीड़ित.

मित्रों, अनेकों बार यह देखा  गया है कि हम अपने दुःख सुख के समय जिन महाशय को अपनी व्यथा सुनाते हैं दरअसल वोही महाशय आपकी बिन बुलाई मुसीबतों  कि जड़ में रहते हैं.  आखिर यह बला है क्या ? वेदों पुराणों के समय से समाज के हर वर्ग में पाए जाने वाला यह समुदाय निश्चित  ही गुणों के आधार पर  बगुलाभगत और घड़ियाल प्रजाति का रहा होगाऐसा प्रतीत होता है. कई विद्वानो द्वारा किये गए शोध भी उत्पत्ति का मूल कारण  पता लगाने में  असमर्थ रहे. इनके भी हम आप जैसे ही दो आँख दो कान आदि होते है, ज्ञानी भी हुआ करते हैं, तभी तो चूना  इस ख़ूबसूरती से लगाते हैं कि पीड़ित को अहसास भी नहीं होता. छलने कि हद  तो देखिये कि  अधिकांश में पीड़ित इनकी ही नापाक शरण में अपना शोषण करवाता रहता है अपनी बर्बादी होने तक.

यह ऐसा क्यों करते हैं ? यह प्रश्न गंभीर है. मूल वजह तो अभी तक ज्ञात नहीं हुई  है पर लक्षणों पर शोध से ज्ञात हुआ है कि यह मानसिक कुंठा से पीड़ित होते हैं. यह कुंठा उनके शारीरिक एवम मानसिक  कुविकसित होने कि वजह से होना प्रतीत होता है. यह अन्य सामान्य मनुष्यों जैसे दिखते अवश्य हैं पर कार्यकुशलता और कार्यक्षमता इनमे निम्नतर पाई जाती है, इस कुंठा कि वज़ह से ही यह किसी को आगे बढता नहीं देख सकते , यह किसी को मुस्कराते देखते हैं तो इन्हें दस्त कि शिकायत हो जाती है. अपनी शारीरिक  और मानसिक कमियों से त्रस्त यह मासूम दूसरों का जीवन नर्क बनाने के अपने कुत्सित प्रयासों में तनमन से लगे रहते हैं. यह अपने प्रयासों कि शुरुवात दूसरों के चरित्र हनन और घटिया चुगलियों से करते हैं, इस स्तर पर जब यह सफल नहीं होते तो इनके  वार भयानक षड़यंत्र का रूप लेने लगते हैं . यह अपनी सफलता जो आपकी बर्बादी भी हो सकती है के लिए “ साम, दाम, दंड, भेद “ के सिंद्धांत का अनुपालन करते हैं. ऐसा पाया गया है कि असुक्क्षा के बोध से पीड़ित जबरदस्त अदाकार भी हुआ करते हैं, तभी तो जो आप कि पीठ में चुरा घोप रहा होता है, अक्सर उसके ही कंधे पर हम अपना सर रख अपना दुखड़ा रोते हैं. 

मित्रों वैसे तो यह समाज के हर क्षेत्रों में सक्रिय हैं, परन्तु सरकारी कार्यालयों पर इनकी विशेष कृपा रहती है. यह ऐसे पारस हैं जो अपने चुगली के बाण से पल भर में आपका चरित्र हनन कर राजा  को रंक  और चमचागिरी के अस्त्र से रंक को राजा बनवा देते हैं . इनके इस हुनर से कई कामकाजी पीढियां बर्बाद हो गयी , कान के कच्चे अधिकारियों को यह अपनी ऊँगली पर नाचने को मजबूर कर देते हैं. अनेकों शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि ये सिर्फ वहीँ विफल होते हैं जिस कार्यालय में कार्य चमचागिरी से ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है और उस कार्यालय के अधिकांश अधिकारी कान के कच्चे नहीं हुआ करते. आमतोर पर ये या तो उस अधिकारी को भी अपने षड्यंत्रों का शिकार बना लेते हैं या अपने लिए नया ठिकाना ढूंढने लगते हैं.

असुरक्षा के बोध पर अभी मेरा शोध अपूर्ण है , जो भी अभीतक ठोकरें खा-खा कर सीखा था मानवता के नाते आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ. कभी अवसर मिले तो अपने अनुभव हमसे भी साझा करियेगा,  हो सकता है आपकी मदद से हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकने में सफल हो. अगर ऐसा हुआ तो आने वाली पीढियां हम सभी कि शुक्रगुजार रहा करेंगी. फिलहाल सदबुद्धि कि प्रार्थना करता हूँ अपने और आप सभी के लिए .
ॐ शांति ॐ.

लेखक – राजेंद्र कुमार बाजपेयी
प्रभारी हिंदी अधिकारी


दूरदर्शन केंद्र भोपाल