डर - एक कविता

डर है एक माँ को अपने बच्चे को भेजते हुए पाठशाला
कहीं किसी ने न रख दिया हो बम पाठशाला में
शिक्षक भी हैं डूबे किसी सोच में
कि कितने स्वप्न हैं बच्चों की आँखों में
बनने के इंजिनियर, डॉक्टर और वैज्ञानिक,


कहीं कोई न पकड़ा दे इन बच्चों के हांथों में बंदूक
और सिखा दे चलाना, कहीं मासूमों का जीवन न बिगड़ जाए
डर है बम बनाने वाले को कहीं ये उसके हांथ में न फट जाए
डर है एक भूखे पक्षी को कहीं कोई शिकारी न मार दे उसे गोली,

दो निवाले के लिए, कहीं उसके बच्चे भूखे न मर जाएं
डर है शेर को कहीं वो इतिहास न बन जाए,
डर है शिकारी को भी कहीं वो स्वयं शिकार न हो जाए,
डर है फुटपाथ पर सोते उस वृद्ध को,

कहीं कोई गाड़ी फुटपाथ पर न चढ़ जाए
डर है धरती को कहीं वो खून से लथपथ न हो जाए
डर है आसमान को कोई उसके तारे न तोड़ ले जाए
डर है सूरज को कि उसकी तेज न कम हो जाए
डर है चाँद को कहीं उस पर न लोग बस जाएं
डर है समुद्र को कहीं वो रेगिस्तान न बन जाए,

डर है हम सबको कहीं ये हथियार बनाकर
प्रयोग हम पर ही न हो जाए
डर है भीड़ को कहीं वो एकांत न हो जाए
डर है शोर को कहीं वो सन्नाटा न हो जाए l


(के. के. बाथम ‘कृष्ण’)
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